कोराना वायरस का प्रकोप, पैसों के अभाव और भुखमरी के शिकार हो सकते हैं. 90 प्रतिशत लोग

कोराना वायरस का प्रकोप बढ़ने से रोकने के लिए किया गया ये लॉकडाउन शायद सरकार के लिए इसलिए भी ज़रूरी हो गया था, क्योंकि सरकार ने इस महामारी के ख़तरों को समझने में देर की. लेकिन, अब सरकार सोते रहने का जोखिम नहीं उठा सकती. क्योंकि अब गाड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ रही है. वरना, इस महामारी का सबसे बुरा और तबाही लाने वाला प्रभाव देश के ग़रीब भुगतने के लिए मजबूर होंगे.


 90 फ़ीसदी भारतीय नागरिक, देश के असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. न तो उनके लिए कोई क़ानूनी उपाय हैं. और, न ही उन लोगों की रोज़ी-रोटी के नियमन के लिए कोई क़ानूनी संरक्षण उपलब्ध है. इनमें करोड़ों शहरी और ग्रामीण मज़दूर शामिल हैं. ये वो लोग हैं, जो समाज के सबसे ग़रीब लोग हैं और जो किसी भी आर्थिक झटके से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं. ये लोग दिहाड़ी, हफ़्तावार या माहवारी मज़दूरी पर गुज़र-बसर करते हैं. और इनके पास अचानक आमदनी बंद होने से आई किसी मुश्किल का सामना करने के लिए बचत के नाम पर या तो कुछ नहीं होता. या फिर मामूली सी रक़म होती है. जब लॉकडाउन के कारण देश में आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह से ठप हो रही हैं, तो भारतीय समाज का यही वो तबक़ा है, जो इस लॉकडाउन के दौरान सबसे मुश्किल में होगा. अगर कोई सरकार इन लोगों का भला सोच कर काम कर रही होती, तो उसे कोरोना वायरस का प्रकोप रोकने के लिए, लॉकडाउन के एलान से पहले, देश के इस सबसे कमज़ोर तबक़े की मदद के लिए आर्थिक पैकेज और उसे लागू करने के संसाधनों का जुगाड़ कर लेना चाहिए था. लेकिन, केंद्र की बीजेपी सरकार ने ऐसा करने में घोर लापरवाही बरती. लॉकडाउन के कारण मज़दूरों और ग़रीबों में बेचैनी और उनके अपने अपने ठिकाने छोड़ कर पलायन करने के संकेत, बिना योजना के लागू हुए लॉकडाउन के 48 घंटों के भीतर ही सामने आ गए. कुछ ही दिनों के भीतर परिस्थिति इतनी बिगड़ सकती है कि लोग पैसों के अभाव और भुखमरी के शिकार हो सकते हैं.


 






 


 


 


 


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